घर.
- Magicthreadworks

- Aug 22
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A Poetry by Magicthreadworks.

आज मै ऑफिस से घर से जो आई
कमरों में एक सन्नाटा सा पसरा पाया
हवाओ की सरसराहट पर
जैसे किसी ने ताला लगा दिया हो.
चारो तरफ हमारे एक-साथ बुने सपने
पतझड़ के पत्तो से बिखरे पड़े थे.
मैंने झुक कर एक को जो उठाया
तो तुम्हारी हंसी की खनक सुनाई दी
इस पर ख्याल आया,
आज कल मुस्कुराहतो ने हमारे साथ
आँख-मिचौली भी खेलना छोड़ दिया है
सोफे पे पड़ी मिट्टी की परते
बोलती है कितने दिन हुए
जब कुछ देर रुक कर
बातें की थी हमने
मेज पर उस दिन की कॉफ़ी के कप
के निशान आज भी मौजूद है
दरवाजे की घंटी बजी है
सोच रही हू आज पूछ ही लू
उस अजनबी से एक कप कॉफ़ी के लिए
जो यू तो रोज़ ही आता है मेरे घर.




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